Synopsis
Stories of Premchand narrated by various artists
Episodes
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चंद्रधर शर्मा गुलेरी की लिखी कहानी घंटाघर, GhantaGhar - Story Written By Chandradhar Sharma Guleri
05/05/2019 Duration: 07minएक मनुष्य को कहीं जाना था। उसने अपने पैरों से उपजाऊ भूमि को बंध्या करके पगडंडी काटी और वह वहाँ पर पहला पहुँचने वाला हुआ। दूसरे, तीसरे और चौथे ने वास्तव में उस पगडंडी को चौड़ी किया और कुछ वर्षों तक यों ही लगातार जाते रहने से वह पगडंडी चौड़ा राजमार्ग बन गई, उस पर पत्थर या संगमरमर तक बिछा दिया गया, और कभी-कभी उस पर छिड़काव भी होने लगा। वह पहला मनुष्य जहाँ गया था वहीं सब कोई जाने लगे। कुछ काल में वह स्थान पूज्य हो गया और पहला आदमी चाहे वहाँ किसी उद्देश्य से आया हो, अब वहाँ जाना ही लोगों का उद्देश्य रह गया। बड़े आदमी वहाँ घोड़ों, हाथियों पर आते, मखमल कनात बिछाते जाते, और अपने को धन्य मानते आते। गरीब आदमी कण-कण माँगते वहाँ आते और जो अभागे वहाँ न आ सकते वे मरती बेला अपने पुत्र को थीजी कि आन दिला कर वहाँ जाने का निवेदन कर जाते। प्रयोजन यह है कि वहाँ मनुष्यों का प्रवाह बढ़ता ही गया। एक सज्जन ने वहाँ आनेवाले लोगों को कठिनाई न हो, इसलिए उस पवित्र स्थान के चारों ओर, जहाँ वह प्रथम मनुष्य आया था, हाता खिंचवा दिया। दूसरे ने, पहले के काम में कुछ जोड़ने, या अपने नाम में कुछ जोड़ने के लोभ से उस पर एक छप्पर डलवा दिया। तीसरे न
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जयशंकर प्रसाद की लिखी कहानी विराम चिह्न Viram Chihn - Story Written By Jaishankar Prasad
03/05/2019 Duration: 07minदेव-मन्दिर के सिंहद्वार से कुछ दूर हट कर वह छोटी-सी दुकान थी। सुपारी के घने कुञ्ज के नीचे एक मैले कपड़े पर सूखी हुई धार में तीन-चार केले, चार कच्चे पपीते, दो हरे नारियल और छ: अण्डे थे। मन्दिर से दर्शन करके लौटते हुए भक्त लोग दोनों पट्टी में सजी हुई हरी-भरी दुकानों को देखकर उसकी ओर ध्यान देने की आवश्यकता ही नहीं समझते थे। अर्द्ध-नग्न वृद्धा दूकानवाली भी किसी को अपनी वस्तु लेने के लिए नहीं बुलाती थी। वह चुपचाप अपने केलों और पपीतों को देख लेती। मध्याह्न बीत चला। उसकी कोई वस्तु न बिकी। मुँह की ही नहीं, उसके शरीर पर की भी झुर्रियाँ रूखी होकर ऐंठी जा रही थीं। मूल्य देकर भात-दाल की हाँडिय़ाँ लिये लोग चले जा रहे थे। मन्दिर में भगवान् के विश्राम का समय हो गया था। उन हाँड़ियों को देखकर उसकी भूखी आँखों में लालच की चमक बढ़ी, किन्तु पैसे कहाँ थे? आज तीसरा दिन था, उसे दो-एक केले खाकर बिताते हुए। उसने एक बार भूख से भगवान् की भेंट कराकर क्षण-भर के लिए विश्राम पाया; किन्तु भूख की वह पतली लहर अभी दबाने में पूरी तरह समर्थ न हो सकी थी, कि राधे आकर उसे गुरेरने लगा। उसने भरपेट ताड़ी पी ली थी। आँखे लाल, मुँह से बात करने में झाग नि
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जयशंकर प्रसाद की लिखी कहानी पंचायत, Panchayat - Story Written By Jaishankar Prasad
01/05/2019 Duration: 06minमन्दाकिनी के तट पर रमणीक भवन में स्कन्द और गणेश अपने-अपने वाहनों पर टहल रहे हैं। नारद भगवान् ने अपनी वीणा को कलह-राग में बजाते-बजाते उस कानन को पवित्र किया, अभिवादन के उपरान्त स्कन्द, गणेश और नारद में वार्ता होने लगी। नारद-(स्कन्द से) आप बुद्धि-स्वामी गणेश के साथ रहते हैं, यह अच्छी बात है, (फिर गणेश से) और देव-सेनापति कुमार के साथ घूमते हैं, इससे (तोंद दिखाकर) आपका भी कल्याण ही है। गणेश-क्या आप मुझे स्थूल समझकर ऐसा कह रहे हैं? आप नहीं जानते, हमने इसीलिए मूषक-वाहन रखा है, जिसमें देव-समाज में वाहन न होने की निन्दा कोई न करे, और नहीं तो बेचारा ‘मूस’ चलेगा कितना? मैं तो चल-फिर कर काम चला लेता हूँ। देखिये, जब जननी ने द्वारपाल का कार्य मुझे सौंप रखा था, तब मैंने कितना पराक्रम दिखाया था, प्रमथ गणों को अपनी पद-मर्यादा हमारे सोंटे की चोट से भूल जाना पड़ा। स्कन्द-बस रहने दो, यदि हम तुम्हें अपने साथ न टहलाते, तो भारत के आलसियों की तरह तुम भी हो जाते। गणेश-(हँसकर) ह-ह-ह-ह, नारदजी! देखते हैं न आप? लड़ाके लोगों से बुद्धि उतनी ही समीप रहती है, जितनी की हिमालय से दक्षिणी समुद्र! स्कन्द-और यह भी सुना है।-ढोल के भीतर पोल
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जयशंकर प्रसाद की लिखी कहानी सालवती, Salwati - Story Written By Jaishankar Prasad
29/04/2019 Duration: 47minसदानीरा अपनी गम्भीर गति से, उस घने साल के जंगल से कतरा कर चली जा रही है। सालों की श्यामल छाया उसके जल को और भी नीला बना रही है; परन्तु वह इस छायादान को अपनी छोटी-छोटी वीचियों से मुस्कुरा कर टाल देती है। उसे तो ज्योत्सना से खेलना है। चैत की मतवाली चाँदनी परिमल से लदी थी। उसके वैभव की यह उदारता थी कि उसकी कुछ किरणों को जंगल के किनारे की फूस की झोपड़ी पर भी बिखरना पड़ा। उसी झोपड़ी के बाहर नदी के जल को पैर से छूती हुई एक युवती चुपचाप बैठी आकाश के दूरवर्ती नक्षत्रों को देख रही थी। उसके पास ही सत्तू का पिंड रक्खा था। भीतर के दुर्बल कण्ठ से किसी ने पुकारा-‘‘बेटी!’’ परन्तु युवती तो आज एक अद्भुत गौरव-नारी-जीवन की सार्थकता देखकर आयी है! पुष्करिणी के भीतर से कुछ मिट्टी, रात में ढोकर बाहर फेंकने का पारिश्रमिक चुकाने के लिए, रत्नाभरणों से लदी हुई एक महालक्ष्मी बैठी थी। उसने पारिश्रमिक देते हुए पूछा-‘‘बहन! तुम कहाँ रहती हो? कल फिर आना।’’ उन शब्दों में कितना स्नेह था। वह महत्व! ...क्या इन नक्षत्रों से भी दूर की वस्तु नहीं? विशेषत: उसके लिए .... वह तल्लीन थी। भीतर से फिर पुकार हुई। ‘‘बेटी! .... सालवती! .... रात को नहा मत
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जयशंकर प्रसाद की लिखी कहानी ब्रह्मर्षि, Brahmrishi - Story Written By Jaishankar Prasad
27/04/2019 Duration: 10minनवीन कोमल किसलयों से लदे वृक्षों से हरा-भरा तपोवन वास्तव में शान्ति-निकेतन का मनोहर आकार धारण किये हुए है, चञ्चल पवन कुसुमसौरभ से दिगन्त को परिपूर्ण कर रहा है; किन्तु, आनन्दमय वशिष्ठ भगवान् अपने गम्भीर मुखमण्डल की गम्भीरमयी प्रभा से अग्निहोत्र-शाला को आलोकमय किये तथा ध्यान में नेत्र बन्द किये हुए बैठे हैं। प्रशान्त महासागर में सोते हुए मत्स्यराज के समान ही दोनों नेत्र अलौकिक आलोक से आलोकित हो रहे हैं। रघुकुल-श्रेष्ठ महाराज त्रिशंकु सामने हाथ जोड़कर खड़े हैं, किन्तु सामथ्र्य किसकी जो उस आनन्द में बाधा डाले। ध्यान भग्न हुआ, वशिष्ठजी को त्रिशंकु ने साष्टांग दण्डवत् किया, उन्होंने आशीर्वाद दिया। सबको बैठने की आज्ञा हुई, सविनय सब बैठे। महाराज को कुछ कहते देखकर ब्रह्मर्षि ने ध्यान से सुनना आरम्भ किया। त्रिशंकु ने पूछा-‘‘भगवन्! यज्ञ का क्या फल है?’’ फिर प्रश्न किया गया-‘‘मनुष्य शरीर से स्वर्ग-प्राप्ति हो सकती है?’’ उत्तर मिला-‘‘नहीं।’’ फिर प्रश्न किया गया-‘‘आपकी कृपा से सब हो सकता है?’’ उत्तर मिला-‘‘राजन्, उसको तुम न तो पा सकते हो और न हम दिला सकते हैं।’’ त्रिशंकु वहाँ से उठकर, प्रणामोपरान्त दूसरी ओर चले। थो
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जयशंकर प्रसाद की लिखी कहानी परिवर्तन, Parivartan - Story Written By Jaishankar Prasad
25/04/2019 Duration: 11minचन्द्रदेव ने एक दिन इस जनाकीर्ण संसार में अपने को अकस्मात् ही समाज के लिए अत्यन्त आवश्यक मनुष्य समझ लिया और समाज भी उसकी आवश्यकता का अनुभव करने लगा। छोटे-से उपनगर में, प्रयाग विश्वविद्यालय से लौटकर, जब उसने अपनी ज्ञान-गरिमा का प्रभाव, वहाँ के सीधे-सादे निवासियों पर डाला, तो लोग आश्चर्य-चकित होकर सम्भ्रम से उसकी ओर देखने लगे, जैसे कोई जौहरी हीरा-पन्ना परखता हो। उसकी थोड़ी-सी सम्पत्ति, बिसातखाने की दूकान और रुपयों का लेन-देन, और उसका शारीरिक गठन सौन्दर्य का सहायक बन गया था। कुछ लोग तो आश्चर्य करते थे कि वह कहीं का जज और कलेक्टर न होकर यह छोटी-सी दुकानदारी क्यों चला रहा है, किन्तु बातों में चन्द्रदेव स्वतन्त्र व्यवसाय की प्रशंसा के पुल बाँध देता और नौकरी की नरक से उपमा दे देता, तब उसकी कर्तव्य-परायणता का वास्तविक मूल्य लोगों की समझ में आ जाता। यह तो हुई बाहर की बात। भीतर अपने अन्त:करण में चन्द्रदेव इस बात को अच्छी तरह तोल चुका था कि जज-कलेक्टर तो क्या, वह कहीं ‘किरानी’ होने की भी क्षमता नहीं रखता था। तब थोड़ा-सा विनय और त्याग का यश लेते हुए संसार के सहज-लब्ध सुख को वह क्यों छोड़ दे? अध्यापकों के रटे हुए व्याख्
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जयशंकर प्रसाद की लिखी कहानी सलीम, Saleem - Story Written By Jaishankar Prasad
23/04/2019 Duration: 19minश्चिमोत्तर सीमाप्रान्त में एक छोटी-सी नदी के किनारे, पहाड़ियों से घिरे हुए उस छोटे-से गाँव पर, सन्ध्या अपनी धुँधली चादर डाल चुकी थी। प्रेमकुमारी वासुदेव के निमित्त पीपल के नीचे दीपदान करने पहुँची। आर्य-संस्कृति में अश्वत्थ की वह मर्यादा अनार्य-धर्म के प्रचार के बाद भी उस प्रान्त में बची थी, जिसमें अश्वत्थ चैत्य-वृक्ष या वासुदेव का आवास समझकर पूजित होता था। मन्दिरों के अभाव में तो बोधि-वृक्ष ही देवता की उपासना का स्थान था। उसी के पास लेखराम की बहुत पुरानी परचून की दूकान और उसी से सटा हुआ छोटा-सा घर था। बूढ़ा लेखराम एक दिन जब ‘रामा राम जै जै रामा’ कहता हुआ इस संसार से चला गया, तब से वह दूकान बन्द थी। उसका पुत्र नन्दराम सरदार सन्तसिंह के साथ घोड़ों के व्यापार के लिए यारकन्द गया था। अभी उसके आने में विलम्ब था। गाँव में दस घरों की बस्ती थी, जिसमें दो-चार खत्रियों के और एक घर पण्डित लेखराम मिसर का था। वहाँ के पठान भी शान्तिपूर्ण व्यवसायी थे। इसीलिए वजीरियों के आक्रमण से वह गाँव सदा सशङ्क रहता था। गुलमुहम्मद खाँ-सत्तर वर्ष का बूढ़ा-उस गाँव का मुखिया-प्राय: अपनी चारपाई पर अपनी चौपाल में पड़ा हुआ काले-नीले पत्थरों की
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जयशंकर प्रसाद की लिखी कहानी चित्र मंदिर, Chitra Mandir - Story Written By Jaishankar Prasad
21/04/2019 Duration: 13minप्रकृति तब भी अपने निर्माण और विनाश में हँसती और रोती थी। पृथ्वी का पुरातन पर्वत विन्ध्य उसकी सृष्टि के विकास में सहायक था। प्राणियों का सञ्चार उसकी गम्भीर हरियाली में बहुत धीरे-धीरे हो रहा था। मनुष्यों ने अपने हाथों की पृथ्वी से उठाकर अपने पैरों पर खड़े होने की सूचना दे दी थी। जीवन-देवता की आशीर्वाद-रश्मि उन्हें आलोक में आने के लिए आमन्त्रित कर चुकी थी। यौवन-जल से भरी हुई कादम्बिनी-सी युवती नारी रीछ की खाल लपेटे एक वृक्ष की छाया में बैठी थी। उसके पास चकमक और सूखी लकड़ियों का ढेर था। छोटे-छोटे हिरनों का झुण्ड उसी स्रोत के पास जल पीने के लिए आता। उन्हें पकड़ने की ताक में युवती बड़ी देर से बैठी थी; क्योंकि उस काल में भी शस्त्रों से आखेट नर ही करते थे और उनकी नारियाँ कभी-कभी छोटे-मोटे जन्तुओं को पकड़ लेने में अभ्यस्त हो रही थीं। स्रोत में जल कम था। वन्य कुसुम धीरे-धीरे बहते हुए एक के बाद एक आकर माला की लड़ी बना रहे थे। युवती ने उनकी विलक्षण पँखड़ियों को आश्चर्य से देखा। वे सुन्दर थे, किन्तु उसने इन्हें अपनी दो आरम्भिक आवश्यकताओं काम और भूख से बाहर की वस्तु समझा। वह फिर हिरनों की प्रतीक्षा करने लगी। उनका झुण्ड
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जयशंकर प्रसाद की लिखी कहानी इंद्रजाल, Indrajal - Story Written By Jaishankar Prasad
19/04/2019 Duration: 18minगाँव के बाहर, एक छोटे-से बंजर में कंजरों का दल पड़ा था। उस परिवार में टट्टू, भैंसे और कुत्तों को मिलाकर इक्कीस प्राणी थे। उसका सरदार मैकू, लम्बी-चौड़ी हड्डियोंवाला एक अधेड़ पुरुष था। दया-माया उसके पास फटकने नहीं पाती थी। उसकी घनी दाढ़ी और मूँछों के भीतर प्रसन्नता की हँसी छिपी ही रह जाती। गाँव में भीख माँगने के लिए जब कंजरों की स्त्रियाँ जातीं, तो उनके लिए मैकू की आज्ञा थी कि कुछ न मिलने पर अपने बच्चों को निर्दयता से गृहस्थ के द्वार पर जो स्त्री न पटक देगी, उसको भयानक दण्ड मिलेगा। उस निर्दय झुण्ड में गानेवाली एक लडक़ी थी। और एक बाँसुरी बजानेवाला युवक। ये दोनों भी गा-बजाकर जो पाते, वह मैकू के चरणों में लाकर रख देते। फिर भी गोली और बेला की प्रसन्नता की सीमा न थी। उन दोनों का नित्य सम्पर्क ही उनके लिए स्वर्गीय सुख था। इन घुमक्कड़ों के दल में ये दोनों विभिन्न रुचि के प्राणी थे। बेला बेडिऩ थी। माँ के मर जाने पर अपने शराबी और अकर्मण्य पिता के साथ वह कंजरों के हाथ लगी। अपनी माता के गाने-बजाने का संस्कार उसकी नस-नस में भरा था। वह बचपन से ही अपनी माता का अनुकरण करती हुई अलापती रहती थी। शासन की कठोरता के कारण कंजरों क
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चंद्रधर शर्मा गुलेरी की लिखी कहानी न्याय रथ, Nyay Rath - Story Written By Chandradhar Sharma Guleri
19/04/2019 Duration: 01minचौड़ (चैड़, चोल या गौड़) देश में गोवर्धन नामक राजा के यहाँ सभामंडप के सामने लोहे के स्तम्भ पर न्याय घंटा था, जिसे न्याय चाहने वाला बजा दिया करता। एक समय उसके एकमात्र पुत्र ने रथ पर चढ़कर जाते समय जान-बूझकर एक बछड़े को कुचल दिया। बछड़े की माता (गौ) ने सींग अड़ाकर घंटा बजा दिया। राजा ने सब हाल पूछकर अपने न्याय को कोटि पर पहुँचाना चाहा। दूसरे दिन सवेरे स्वयं रथ पर बैठ राह में अपने प्यारे इकलौते पुत्र को बैठाकर उस पर रथ चलाया और गौ को दिखा दिया। राजा के सत्व और कुमार के भाग्य से कुमार मरा नहीं।
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जयशंकर प्रसाद की लिखी कहानी देवरथ, Devrath - Story Written By Jaishankar Prasad
17/04/2019 Duration: 12minदो-तीन रेखाएँ भाल पर, काली पुतलियों के समीप मोटी और काली बरौनियों का घेरा, घनी आपस में मिली रहने वाली भवें और नासा-पुट के नीचे हलकी-हलकी हरियाली उस तापसी के गोरे मुँह पर सबल अभिव्यक्ति की प्रेरणा प्रगट करती थी। यौवन, काषाय से कहीं छिप सकता है? संसार को दु:खपूर्ण समझकर ही तो वह संघ की शरण में आयी थी। उसके आशापूर्ण हृदय पर कितनी ही ठोकरें लगी थीं। तब भी यौवन ने साथ न छोड़ा। भिक्षुकी बनकर भी वह शान्ति न पा सकी थी। वह आज अत्यन्त अधीर थी। चैत की अमावस्या का प्रभात था। अश्वत्थ वृक्ष की मिट्टी-सी सफेद डालों और तने पर ताम्र अरुण कोमल पत्तियाँ निकल आयी थीं। उन पर प्रभात की किरणें पड़कर लोट-पोट हो जाती थीं। इतनी स्निग्ध शय्या उन्हें कहाँ मिली थी। सुजाता सोच रही थी। आज अमावस्या है। अमावस्या तो उसके हृदय में सवेरे से ही अन्धकार भर रही थी। दिन का आलोक उसके लिए नहीं के बराबर था। वह अपने विशृंखल विचारों को छोड़कर कहाँ भाग जाय। शिकारियों का झुण्ड और अकेली हरिणी! उसकी आँखें बन्द थीं। आर्यमित्र खड़ा रहा। उसने देख लिया कि सुजाता की समाधि अभी न खुलेगी। वह मुस्कुराने लगा। उसके कृत्रिम शील ने भी उसको वर्जित किया। संघ के नियमों
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जयशंकर प्रसाद की लिखी कहानी नूरी, Noorie - Story Written By Jaishankar Prasad
15/04/2019 Duration: 22minनूरी ''ऐ; तुम कौन? ''......'' ''बोलते नहीं?'' ''......'' ''तो मैं बुलाऊँ किसी को-'' कहते हुए उसने छोटा-सा मुँह खोला ही था कि युवक ने एक हाथ उसके मुँह पर रखकर उसे दूसरे हाथ से दबा लिया। वह विवश होकर चुप हो गयी। और भी, आज पहला ही अवसर था, जब उसने केसर, कस्तूरी और अम्बर से बसा हुआ यौवनपूर्ण उद्वेलित आलिंगन पाया था। उधर किरणें भी पवन के एक झोंके के साथ किसलयों को हटाकर घुस पड़ीं। दूसरे ही क्षण उस कुञ्ज के भीतर छनकर आती हुई चाँदनी में जौहर से भरी कटार चमचमा उठी। भयभीत मृग-शावक-सी काली आँखें अपनी निरीहता में दया की-प्राणों की भीख माँग रही थीं। युवक का हाथ रुक गया। उसने मुँह पर उँगली रखकर चुप रहने का संकेत किया। नूरी काश्मीर की कली थी। सिकरी के महलों में उसके कोमल चरणों की नृत्य-कला प्रसिद्ध थी। उस कलिका का आमोद-मकरन्द अपनी सीमा में मचल रहा था। उसने समझा, कोई मेरा साहसी प्रेमी है, जो महाबली अकबर की आँख-मिचौनी-क्रीड़ा के समय पतंग-सा प्राण देने आ गया है। नूरी ने इस कल्पना के सुख में अपने को धन्य समझा और चुप रहने का संकेत पाकर युवक के मधुर अधरों पर अपने अधर रख दिये। युवक भी आत्म-विस्मृत-सा उस सुख में पल-भर के लिए
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जयशंकर प्रसाद की लिखी कहानी चित्रवाले पत्थर, Chitrawale Patthar - Story Written By Jaishankar Prasad
13/04/2019 Duration: 23minमैं ‘संगमहाल’ का कर्मचारी था। उन दिनों मुझे विन्ध्य शैल-माला के एक उजाड़ स्थान में सरकारी काम से जाना पड़ा। भयानक वन-खण्ड के बीच, पहाड़ी से हटकर एक छोटी-सी डाक बँगलिया थी। मैं उसी में ठहरा था। वहीं की एक पहाड़ी में एक प्रकार का रंगीन पत्थर निकला था। मैं उनकी जाँच करने और तब तक पत्थर की कटाई बन्द करने के लिए वहाँ गया था। उस झाड़-खण्ड में छोटी-सी सन्दूक की तरह मनुष्य-जीवन की रक्षा के लिए बनी हुई बँगलिया मुझे विलक्षण मालूम हुई; क्योंकि वहाँ पर प्रकृति की निर्जन शून्यता, पथरीली चट्टानों से टकराती हुई हवा के झोंके के दीर्घ-नि:श्वास, उस रात्रि में मुझे सोने न देते थे। मैं छोटी-सी खिडक़ी से सिर निकालकर जब कभी उस सृष्टि के खँडहर को देखने लगता, तो भय और उद्वेग मेरे मन पर इतना बोझ डालते कि मैं कहानियों में पढ़ी हुई अतिरञ्जित घटनाओं की सम्भावना से ठीक संकुचित होकर भीतर अपने तकिये पर पड़ा रहता था। अन्तरिक्ष के गह्वर में न-जाने कितनी ही आश्चर्य-जनक लीलाएँ करके मानवी आत्माओं ने अपना निवास बना लिया है। मैं कभी-कभी आवेश में सोचता कि भत्ते के लोभ से मैं ही क्यों यहाँ चला आया? क्या वैसी ही कोई अद्भुत घटना होने वाली है? मैं फि
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जयशंकर प्रसाद की लिखी कहानी भीख में, Bheekh Mein - Story Written By Jaishankar Prasad
11/04/2019 Duration: 13minखपरल दालान में, कम्बल पर मिन्ना के साथ बैठा हुआ ब्रजराज मन लगाकर बातें कर रहा था। सामने ताल में कमल खिल रहे थे। उस पर से भीनी-भीनी महक लिये हुए पवन धीरे-धीरे उस झोपड़ी में आता और चला जाता था। ‘‘माँ कहती थी ...’’, मिन्ना ने कमल की केसरों को बिखराते हुए कहा। ‘‘क्या कहती थी?’’ ‘‘बाबूजी परदेश जायँगे। तेरे लिये नैपाली टट्टू लायँगे।’’ ‘‘तू घोड़े पर चढ़ेगा कि टट्टू पर! पागल कहीं का।’’ ‘‘नहीं, मैं टट्टू पर चढ़ूंगा। वह गिरता नहीं।’’ ‘‘तो फिर मैं नहीं जाऊँगा?’’ ‘‘क्यों नहीं जाओगे? ऊँ-ऊँ-ऊँ, मैं अब रोता हूँ।’’ ‘‘अच्छा, पहले यह बताओ कि जब तुम कमाने लगोगे, तो हमारे लिए क्या लाओगे?’’ ‘‘खूब ढेर-सा रुपया’’-कहकर मिन्ना ने अपना छोटा-सा हाथ जितना ऊँचा हो सकता था, उठा लिया। ‘‘सब रुपया मुझको ही दोगे न!’’ ‘‘नहीं, माँ को भी दूँगा।’’ ‘‘मुझको कितना दोगे?’’ ‘‘थैली-भर!’’ ‘‘और माँ को?’’ ‘‘वही बड़ी काठवाली सन्दूक में जितना भरेगा।’’ ‘‘तब फिर माँ से कहो; वही नैपाली टट्टू ला देगी।’’ मिन्ना ने झुँझलाकर ब्रजराज को ही टट्टू बना लिया। उसी के कन्धों पर चढक़र अपनी साध मिटाने लगा। भीतर दरवाज़े में से इन्दो झाँककर पिता-पुत्र का विन
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जयशंकर प्रसाद की लिखी कहानी संदेह, Sandeh - Story Written By Jaishankar Prasad
09/04/2019 Duration: 13minरामनिहाल अपना बिखरा हुआ सामान बाँधने में लगा। जँगले से धूप आकर उसके छोटे-से शीशे पर तड़प रही थी। अपना उज्ज्वल आलोक-खण्ड, वह छोटा-सा दर्पण बुद्ध की सुन्दर प्रतिमा को अर्पण कर रहा था। किन्तु प्रतिमा ध्यानमग्न थी। उसकी आँखे धूप से चौंधियाती न थीं। प्रतिमा का शान्त गम्भीर मुख और भी प्रसन्न हो रहा था। किन्तु रामनिहाल उधर देखता न था। उसके हाथों में था एक कागजों का बण्डल, जिसे सन्दूक में रखने के पहले वह खोलना चाहता था। पढऩे की इच्छा थी, फिर भी न जाने क्यों हिचक रहा था और अपने को मना कर रहा था, जैसे किसी भयानक वस्तु से बचने के लिए कोई बालक को रोकता हो। बण्डल तो रख दिया पर दूसरा बड़ा-सा लिफाफा खोल ही डाला। एक चित्र उसके हाथों में था और आँखों में थे आँसू। कमरे में अब दो प्रतिमा थीं। बुद्धदेव अपनी विराग-महिमा में निमग्न। रामनिहाल रागशैल-सा अचल, जिसमें से हृदय का द्रव आँसुओं की निर्झरिणी बनकर धीरे-धीरे बह रहा था। किशोरी ने आकर हल्ला मचा दिया-‘‘भाभी, अरे भाभी! देखा नहीं तूने, न! निहाल बाबू रो रहे हैं। अरे, तू चल भी!’’ श्यामा वहाँ आकर खड़ी हो गयी। उसके आने पर भी रामनिहाल उसी भाव में विस्मृत-सा अपनी करुणा-धारा बहा रहा था
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जयशंकर प्रसाद की लिखी कहानी छोटा जादूगर, Chhota Jadugar - Story Written By Jaishankar Prasad
07/04/2019 Duration: 08minकार्निवल के मैदान में बिजली जगमगा रही थी। हँसी और विनोद का कलनाद गूँज रहा था। मैं खड़ा था। उस छोटे फुहारे के पास, जहाँ एक लडक़ा चुपचाप शराब पीनेवालों को देख रहा था। उसके गले में फटे कुरते के ऊपर से एक मोटी-सी सूत की रस्सी पड़ी थी और जेब में कुछ ताश के पत्ते थे। उसके मुँह पर गम्भीर विषाद के साथ धैर्य की रेखा थी। मैं उसकी ओर न जाने क्यों आकर्षित हुआ। उसके अभाव में भी सम्पूर्णता थी। मैंने पूछा-‘‘क्यों जी, तुमने इसमं क्या देखा?’’ ‘‘मैंने सब देखा है। यहाँ चूड़ी फेंकते हैं। खिलौनों पर निशाना लगाते हैं। तीर से नम्बर छेदते हैं। मुझे तो खिलौनों पर निशाना लगाना अच्छा मालूम हुआ। जादूगर तो बिलकुल निकम्मा है। उससे अच्छा तो ताश का खेल मैं ही दिखा सकता हूँ।’’-उसने बड़ी प्रगल्भता से कहा। उसकी वाणी में कहीं रुकावट न थी। मैंने पूछा-‘‘और उस परदे में क्या है? वहाँ तुम गये थे।’’ ‘‘नहीं, वहाँ मैं नहीं जा सका। टिकट लगता है।’’ मैंने कहा-‘‘तो चल, मैं वहाँ पर तुमको लिवा चलूँ।’’ मैंने मन-ही-मन कहा-‘‘भाई! आज के तुम्हीं मित्र रहे।’’ उसने कहा-‘‘वहाँ जाकर क्या कीजिएगा? चलिए, निशाना लगाया जाय।’’ मैंने सहमत होकर कहा-‘‘तो फिर चलो, पहिले
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जयशंकर प्रसाद की लिखी कहानी अनबोला, Anbola - Story Written By Jaishankar Prasad
05/04/2019 Duration: 05minउसके जाल में सीपियाँ उलझ गयी थीं। जग्गैया से उसने कहा-‘‘इसे फैलाती हूँ, तू सुलझा दे।’’ जग्गैया ने कहा-‘‘मैं क्या तेरा नौकर हूँ?’’ कामैया ने तिनककर अपने खेलने का छोटा-सा जाल और भी बटोर लिया। समुद्र-तट के छोटे-से होटल के पास की गली से अपनी झोपड़ी की ओर चली गयी। जग्गैया उस अनखाने का सुख लेता-सा गुनगुनाकर गाता हुआ, अपनी खजूर की टोपी और भी तिरछी करके, सन्ध्या की शीतल बालुका को पैरों से उछालने लगा। -- -- दूसरे दिन, जब समुद्र में स्नान करने के लिए यात्री लोग आ गये थे; सिन्दूर-पिण्ड-सा सूर्य समुद्र के नील जल में स्नान कर प्राची के आकाश में ऊपर उठ रहा था; तब कामैया अपने पिता के साथ धीवरों के झुण्ड में खड़ी थी; उसके पिता की नावें समुद्र की लहरों पर उछल रही थीं। महाजाल पड़ा था, उसे बहुत-से धीवर मिलकर खींच रहे थे। जग्गैया ने आकर कामैया की पीठ में उँगली गोद दी। कामैया कुछ खिसककर दूर जा खड़ी हुई। उसने जग्गैया की ओर देखा भी नहीं। जग्गैया को केवल माँ थी, वह कामैया के पिता के यहाँ लगी-लिपटी रहती, अपना पेट पालती थी। वह बेंत की दौरी लिये वहीं खड़ी थी। कामैया की मछलियाँ ले जाकर बाज़ार में बेचना उसी का काम था। जग्गैया नटखट
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जयशंकर प्रसाद की लिखी कहानी गुंडा, Gunda - Story Written By Jaishankar Prasad
03/04/2019 Duration: 28minवह पचास वर्ष से ऊपर था। तब भी युवकों से अधिक बलिष्ठ और दृढ़ था। चमड़े पर झुर्रियाँ नहीं पड़ी थीं। वर्षा की झड़ी में, पूस की रातों की छाया में, कड़कती हुई जेठ की धूप में, नंगे शरीर घूमने में वह सुख मानता था। उसकी चढ़ी मूँछें बिच्छू के डंक की तरह, देखनेवालों की आँखों में चुभती थीं। उसका साँवला रंग, साँप की तरह चिकना और चमकीला था। उसकी नागपुरी धोती का लाल रेशमी किनारा दूर से ही ध्यान आकर्षित करता। कमर में बनारसी सेल्हे का फेंटा, जिसमें सीप की मूठ का बिछुआ खुँसा रहता था। उसके घुँघराले बालों पर सुनहले पल्ले के साफे का छोर उसकी चौड़ी पीठ पर फैला रहता। ऊँचे कन्धे पर टिका हुआ चौड़ी धार का गँड़ासा, यह भी उसकी धज! पंजों के बल जब वह चलता, तो उसकी नसें चटाचट बोलती थीं। वह गुंडा था। ईसा की अठारहवीं शताब्दी के अन्तिम भाग में वही काशी नहीं रह गयी थी, जिसमें उपनिषद् के अजातशत्रु की परिषद् में ब्रह्मविद्या सीखने के लिए विद्वान् ब्रह्मचारी आते थे। गौतम बुद्ध और शंकराचार्य के धर्म-दर्शन के वाद-विवाद, कई शताब्दियों से लगातार मंदिरों और मठों के ध्वंस और तपस्वियों के वध के कारण, प्राय: बन्द-से हो गये थे। यहाँ तक कि पवित्रता और छु
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जयशंकर प्रसाद की लिखी कहानी ग्राम गीत, Gram Geet - Story Written By Jaishankar Prasad
01/04/2019 Duration: 08minशरद्-पूर्णिमा थी। कमलापुर के निकलते हुए करारे को गंगा तीन ओर से घेरकर दूध की नदी के समान बह रही थी। मैं अपने मित्र ठाकुर जीवन सिंह के साथ उनके सौंध पर बैठा हुआ अपनी उज्ज्वल हँसी में मस्त प्रकृति को देखने में तन्मय हो रहा था। चारों ओर का क्षितिज नक्षत्रों के बन्दनवार-सा चमकने लगा था। धवलविधु-बिम्ब के समीप ही एक छोटी-सी चमकीली तारिका भी आकाश-पथ में भ्रमण कर रही थी। वह जैसे चन्द्र को छू लेना चाहती थी; पर छूने नहीं पाती थी। मैंने जीवन से पूछा-तुम बता सकते हो, वह कौन नक्षत्र है? रोहिणी होगी। -जीवन के अनुमान करने के ढंग से उत्तर देने पर मैं हँसना ही चाहता था कि दूर से सुनाई पड़ा- बरजोरी बसे हो नयनवाँ में। उस स्वर-लहरी में उन्मत्त वेदना थी। कलेजे को कचोटनेवाली करुणा थी। मेरी हँसी सन्न रह गई। उस वेदना को खोजने के लिए, गंगा के उस पार वृक्षों की श्यामलता को देखने लगा; परन्तु कुछ न दिखाई पड़ा। मैं चुप था, सहसा फिर सुनाई पड़ा- अपने बाबा की बारी दुलारी, खेलत रहली अँगनवाँ में, बरजोरी बसे हो। मैं स्थिर होकर सुनने लगा, जैसे कोई भूली हुई सुन्दर कहानी। मन में उत्कण्ठा थी, और एक कसक भरा कुतूहल था! फिर सुनाई पड़ा- ई कु
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जयशंकर प्रसाद की लिखी कहानी बेड़ी, Bedi - Story Written By Jaishankar Prasad
30/03/2019 Duration: 04min‘‘बाबूजी, एक पैसा!’’ मैं सुनकर चौंक पड़ा, कितनी कारुणिक आवाज़ थी। देखा तो एक 9-10 बरस का लडक़ा अन्धे की लाठी पकड़े खड़ा था। मैंने कहा-सूरदास, यह तुमको कहाँ से मिल गया? अन्धे को अन्धा न कह कर सूरदास के नाम से पुकारने की चाल मुझे भली लगी। इस सम्बोधन में उस दीन के अभाव की ओर सहानुभूति और सम्मान की भावना थी, व्यंग न था। उसने कहा-बाबूजी, यह मेरा लडक़ा है-मुझ अन्धे की लकड़ी है। इसके रहने से पेट भर खाने को माँग सकता हूँ और दबने-कुचलने से भी बच जाता हूँ। मैंने उसे इकन्नी दी, बालक ने उत्साह से कहा-अहा इकन्नी! बुड्ढे ने कहा-दाता, जुग-जुग जियो! मैं आगे बढ़ा और सोचता जाता था, इतने कष्ट से जो जीवन बिता रहा है, उसके विचार में भी जीवन ही सबसे अमूल्य वस्तु है, हे भगवान्! दीनानाथ करी क्यों देरी?-दशाश्वमेध की ओर जाते हुए मेरे कानों में एक प्रौढ़ स्वर सुनाई पड़ा। उसमें सच्ची विनय थी-वही जो तुलसीदास की विनय-पत्रिका में ओत-प्रोत है। वही आकुलता, सान्निध्य की पुकार, प्रबल प्रहार से व्यथित की कराह! मोटर की दम्भ भरी भीषण भों-भों में विलीन होकर भी वायुमण्डल में तिरने लगी। मैं अवाक् होकर देखने लगा, वही बुड्ढा! किन्तु आज अकेला था।