Stories Of Premchand

  • Author: Vários
  • Narrator: Vários
  • Publisher: Podcast
  • Duration: 591:59:34
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Synopsis

Stories of Premchand narrated by various artists

Episodes

  • जयशंकर प्रसाद की लिखी कहानी घीसू, Gheesu - Story Written By Jaishankar Prasad

    28/03/2019 Duration: 10min

    सन्ध्या की कालिमा और निर्जनता में किसी कुएँ पर नगर के बाहर बड़ी प्यारी स्वर-लहरी गूँजने लगती। घीसू को गाने का चसका था, परन्तु जब कोई न सुने। वह अपनी बूटी अपने लिए घोंटता और आप ही पीता! जब उसकी रसीली तान दो-चार को पास बुला लेती, वह चुप हो जाता। अपनी बटुई में सब सामान बटोरने लगता और चल देता। कोई नया कुआँ खोजता, कुछ दिन वहाँ अड्डा जमता। सब करने पर भी वह नौ बजे नन्दू बाबू के कमरे में पहुँच ही जाता। नन्दू बाबू का भी वही समय था, बीन लेकर बैठने का। घीसू को देखते ही वह कह देते-आ गये, घीसू! हाँ बाबू, गहरेबाजों ने बड़ी धूल उड़ाई-साफे का लोच आते-आते बिगड़ गया! कहते-कहते वह प्राय: अपने जयपुरी गमछे को बड़ी मीठी आँखों से देखता और नन्दू बाबू उसके कन्धे तक बाल, छोटी-छोटी दाढ़ी, बड़ी-बड़ी गुलाबी आँखों को स्नेह से देखते। घीसू उनका नित्य दर्शन करने वाला, उनकी बीन सुननेवाला भक्त था। नन्दू बाबू उसे अपने डिब्बे से दो खिल्ली पान की देते हुए कहते-लो, इसे जमा लो! क्यों, तुम तो इसे जमा लेना ही कहते हो न? वह विनम्र भाव से पान लेते हुए हँस देता-उसके स्वच्छ मोती-से दाँत हँसने लगते। घीसू की अवस्था पचीस की होगी। उसकी बूढ़ी माता को मरे

  • जयशंकर प्रसाद की लिखी कहानी आँधी, Aandhi - Story Written By Jaishankar Prasad

    26/03/2019 Duration: 01h01min

    चंदा के तट पर बहुत-से छतनारे वृक्षों की छाया है, किन्तु मैं प्राय: मुचकुन्द के नीचे ही जाकर टहलता, बैठता और कभी-कभी चाँदनी में ऊँघने भी लगता। वहीं मेरा विश्राम था। वहाँ मेरी एक सहचरी भी थी, किन्तु वह कुछ बोलती न थी। वह रहट्ठों की बनी हुई मूसदानी-सी एक झोपड़ी थी, जिसके नीचे पहले सथिया मुसहरिन का मोटा-सा काला लडक़ा पेट के बल पड़ा रहता था। दोनों कलाइयों पर सिर टेके हुए भगवान् की अनन्त करुणा को प्रणाम करते हुए उसका चित्र आँखों के सामने आ जाता। मैं सथिया को कभी-कभी कुछ दे देता था; पर वह नहीं के बराबर। उसे तो मजूरी करके जीने में सुख था। अन्य मुसहरों की तरह अपराध करने में वह चतुर न थी। उसको मुसहरों की बस्ती से दूर रहने में सुविधा थी, वह मुचकुन्द के फल इकट्ठे करके बेचती, सेमर की रुई बिन लेती, लकड़ी के गट्ठे बटोर कर बेचती पर उसके इन सब व्यापारों में कोई और सहायक न था। एक दिन वह मर ही तो गई। तब भी कलाई पर से सिर उठा कर, करवट बदल कर अँगड़ाई लेते हुए कलुआ ने केवल एक जँभाई ली थी। मैंने सोचा-स्नेह, माया, ममता इन सबों की भी एक घरेलू पाठशाला है, जिसमें उत्पन्न होकर शिशु धीरे-धीरे इनके अभिनय की शिक्षा पाता है। उसकी अभिव्यक्ति

  • जयशंकर प्रसाद की लिखी कहानी बिसाती, Bisaati - Story Written By Jaishankar Prasad

    24/03/2019 Duration: 06min

    उद्यान की शैल-माला के नीचे एक हरा-भरा छोटा-सा गाँव है। वसन्त का सुन्दर समीर उसे आलिंगन करके फूलों के सौरभ से उसके झोपड़ों को भर देता है। तलहटी के हिम-शीतल झरने उसको अपने बाहुपाश में जकड़े हुए हैं। उस रमणीय प्रदेश में एक स्निग्ध-संगीत निरन्तर चला करता है, जिसके भीतर बुलबुलों का कलनाद, कम्प और लहर उत्पन्न करता है। दाड़िम के लाल फूलों की रँगीली छाया सन्ध्या की अरुण किरणों से चमकीली हो रही थी। शीरीं उसी के नीचे शिलाखण्ड पर बैठी हुई सामने गुलाबों की झुरमुट देख रही थी, जिसमें बहुत से बुलबुल चहचहा रहे थे, वे समीरण के साथ छूल-छुलैया खेलते हुए आकाश को अपने कलरव से गुञ्जित कर रहे थे। शीरीं ने सहसा अवगुण्ठन उलट दिया। प्रकृति प्रसन्न हो हँस पड़ी। गुलाबों के दल में शीरीं का मुख राजा के समान सुशोभित था। मकरन्द मुँह में भरे दो नील-भ्रमर उस गुलाब से उड़ने में असमर्थ थे, भौंरों के पद पर निस्पन्द थे। कँटीली झाड़ियों की कुछ परवा न करते हुए बुलबुलों का उसमें घुसना और उड़ भागना शीरीं तन्मय होकर देख रही थी। उसकी सखी जुलेखा के आने से उसकी एकान्त भावना भंग हो गई। अपना अवगुण्ठन उलटते हुए जुलेखा ने कहा-‘‘शीरीं! वह तुम्हारे हाथों पर

  • जयशंकर प्रसाद की लिखी कहानी ज्योतिष्मती, Jyotishmati - Story Written By Jaishankar Prasad

    22/03/2019 Duration: 05min

    तामसी रजनी के हृदय में नक्षत्र जगमगा रहे थे। शीतल पवन की चादर उन्हें ढँक लेना चाहती थी, परन्तु वे निविड़ अन्धकार को भेदकर निकल आये थे, फिर यह झीना आवरण क्या था! बीहड़, शैल-संकुल वन्य-प्रदेश, तृण और वनस्पतियों से घिरा था। वसंत की लताएँ चारों ओर फैली हुई थीं। हिमदान की उच्च उपत्यका प्रकृति का एक सजीव, गम्भीर और प्रभावशाली चित्र बनी थी! एक बालिका, सूक्ष्म कँवल-वासिनी सुन्दरी बालिका चारों ओर देखती हुई चुपचाप चली जा रही थी। विराट् हिमगिरि की गोद में वह शिशु के समान खेल रही थी। बिखरे हुए बालों को सम्हाल कर उन्हें वह बार-बार हटा देती थी और पैर बढ़ाती हुई चली जा रही थी। वह एक क्रीड़ा-सी थी। परन्तु सुप्त हिमाञ्चल उसका चुम्बन न ले सकता था। नीरव प्रदेश उस सौन्दर्य से आलोकित हो उठता था। बालिका न जाने क्या खोजती चली जाती थी। जैसे शीतल जल का एक स्वच्छ सोता एकाग्र मन से बहता जाता हो। बहुत खोजने पर भी उसे वह वस्तु न मिली, जिसे वह खोज रही थी। सम्भवत: वह स्वयं खो गई। पथ भूल गया, अज्ञात प्रदेश में जा निकली। सामने निशा की निस्तब्धता भंग करता हुआ एक निर्झर कलरव कर रहा था। सुन्दरी ठिठक गई। क्षण भर के लिए तमिस्रा की गम्भीरता ने

  • जयशंकर प्रसाद की लिखी कहानी प्रणय चिह्न, Pranay Chihn - Story Written By Jaishankar Prasad

    20/03/2019 Duration: 11min

    ‘‘क्या अब वे दिन लौट आवेंगे? वे आशाभरी सन्ध्यायें, वह उत्साह-भरा हृदय-जो किसी के संकेत पर शरीर से अलग होकर उछलने को प्रस्तुत हो जाता था-क्या हो गया?’’ ‘‘जहाँ तक दृष्टि दौड़ती है, जंगलों की हरियाली। उनसे कुछ बोलने की इच्छा होती है, उत्तर पाने की उत्कण्ठा होती है। वे हिलकर रह जाते हैं, उजली धूप जलजलाती हुई नाचती निकल जाती है। नक्षत्र चुपचाप देखते रहते हैं,- चाँदनी मुस्कराकर घूँघट खींच लेती है। कोई बोलनेवाला नहीं! मेरे साथ दो बातें कर लेने की जैसे सबने शपथ ले ली है। रात खुलकर रोती भी नहीं-चुपचाप ओस के आँसू गिराकर चल देती है। तुम्हारे निष्फल प्रेम से निराश होकर बड़ी इच्छा हुई थी, मैं किसी से सम्बन्ध न रखकर सचमुच अकेला हो जाऊँ। इसलिए जन-संसर्ग से दूर इस झरने के किनारे आकर बैठ गया, परन्तु अकेला ही न आ सका, तुम्हारी चिन्ता बीच-बीच में बाधा डालकर मन को खींचने लगी। इसलिए फिर किसी से बोलने की, लेन-देन की, कहने-सुनने की कामना बलवती हो गई। ‘‘परन्तु कोई न कुछ कहता है और न सुनता है। क्या सचमुच हम संसार से निर्वासित हैं-अछूत हैं! विश्व का यह नीरव तिरस्कार असह्य है। मैं उसे हिलाऊँगा; उसे झकझोरकर उत्तर देने के लिए बाध्य करू

  • जयशंकर प्रसाद की लिखी कहानी चूड़ीवाली, Chudiwali - Story Written By Jaishankar Prasad

    18/03/2019 Duration: 13min

    ‘‘अभी तो पहना गई हो।’’ ‘‘बहूजी, बड़ी अच्छी चूडिय़ाँ हैं। सीधे बम्बई से पारसल मँगाया है। सरकार का हुक्म है; इसलिए नयी चूडिय़ाँ आते ही चली आती हूँ।’’ ‘‘तो जाओ, सरकार को ही पहनाओ, मैं नहीं पहनती।’’ ‘‘बहूजी! जरा देख तो लीजिए।’’ कहती मुस्कराती हुई ढीठ चूड़ीवाली अपना बक्स खोलने लगी। वह पचीस वर्ष की एक गोरी छरहरी स्त्री थी। उसकी कलाई सचमुच चूड़ी पहनाने के लिए ढली थी। पान से लाल पतले-पतले ओठ दो-तीन वक्रताओं में अपना रहस्य छिपाये हुए थे। उन्हें देखने का मन करता, देखने पर उन सलोने अधरों से कुछ बोलवाने का जी चाहता है। बोलने पर हँसाने की इच्छा होती और उसी हँसी में शैशव का अल्हड़पन, यौवन की तरावट और प्रौढ़ की-सी गम्भीरता बिजली के समान लड़ जाती। बहूजी को उसकी हँसी बहुत बुरी लगती; पर जब पंजों में अच्छी चूड़ी चढ़ाकर, संकट में फँसाकर वह हँसते हुए कहती-‘‘एक पान मिले बिना यह चूड़ी नहीं चढ़ती।’’ तब बहूजी को क्रोध के साथ हँसी आ जाती और उसकी तरल हँसी की तरी लेने में तन्मय हो जातीं। कुछ ही दिनों से यह चूड़ीवाली आने लगी है। कभी-कभी बिना बुलाये ही चली आती और ऐसे ढंग फैलाती कि बिना सरकार के आये निबटारा न होता। यह बहूजी को असह्य ह

  • जयशंकर प्रसाद की लिखी कहानी समुद्र संतरण, Samudra Santaran - Story Written By Jaishankar Prasad

    16/03/2019 Duration: 08min

    क्षितिज में नील जलधि और व्योम का चुम्बन हो रहा है। शान्त प्रदेश में शोभा की लहरियाँ उठ रही है। गोधूली का करुण प्रतिबिम्ब, बेला की बालुकामयी भूमि पर दिगन्त की तीक्षा का आवाहन कर रहा है। नारिकेल के निभृत कुञ्जों में समुद्र का समीर अपना नीड़ खोज रहा था। सूर्य लज्जा या क्रोध से नहीं, अनुराग से लाल, किरणों से शून्य, अनन्त रसनिधि में डूबना चाहता है। लहरियाँ हट जाती हैं। अभी डूबने का समय नहीं है, खेल चल रहा है। सुदर्शन प्रकृति के उस महा अभिनय को चुपचाप देख रहा है। इस दृश्य में सौन्दर्य का करुण संगीत था। कला का कोमल चित्र नील-धवल लहरों में बनता-बिगड़ता था। सुदर्शन ने अनुभव किया कि लहरों में सौर-जगत् झोंके खा रहा है। वह उसे नित्य देखने आता; परन्तु राजकुमार के वेष में नहीं। उसके वैभव के उपकरण दूर रहते। वह अकेला साधारण मनुष्य के समान इसे देखता, निरीह छात्र के सदृश इस गुरु दृश्य से कुछ अध्ययन करता। सौरभ के समान चेतन परमाणुओं से उसका मस्तक भर उठता। वह अपने राजमन्दिर को लौट जाता। सुदर्शन बैठा था किसी की प्रतीक्षा में। उसे न देखते हुए, मछली फँसाने का जाल लिये, एक धीवर-कुमारी समुद्र-तट के कगारों पर चढ़ रही थी, जैसे पंख फै

  • जयशंकर प्रसाद की लिखी कहानी देवदासी, Devdasi - Story Written By Jaishankar Prasad

    14/03/2019 Duration: 21min

    1.3.25 प्रिय रमेश! परदेस में किसी अपने के घर लौट आने का अनुरोध बड़ी सान्त्वना देता है, परन्तु अब तुम्हारा मुझे बुलाना एक अभिनय-सा है। हाँ, मैं कटूक्ति करता हूँ, जानते हो क्यों? मैं झगडऩा चाहता हूँ, क्योंकि संसार में अब मेरा कोई नहीं है, मैं उपेक्षित हूँ। सहसा अपने का-सा स्वर सुनकर मन में क्षोभ होता है। अब मेरा घर लौटकर आना अनिश्चित है। मैंने ‘--’ के हिन्दी-प्रचार-कार्यालय में नौकरी कर ली है। तुम तो जानते ही हो कि मेरे लिए प्रयाग और ‘--’ बराबर हैं। अब अशोक विदेश में भूखा न रहेगा। मैं पुस्तक बेचता हूँ। यह तुम्हारा लिखना ठीक है कि एक आने का टिकट लगाकर पत्र भेजना मुझे अखरता है। पर तुम्हारे गाल यदि मेरे समीप होते, तो उन पर पाँचों नहीं तो मेरी तीन उँगलियाँ अपना चिह्न अवश्य ही बना देतीं; तुम्हारा इतना साहस-मुझे लिखते हो कि बेयरिंग पत्र भेज दिया करो! ये सब गुण मुझमें होते, तो मैं भी तुम्हारी तरह प्रेस में प्रूफरीडर का काम करता होता। सावधान, अब कभी ऐसा लिखोगे, तो मैं उत्तर भी न दूँगा। लल्लू को मेरी ओर से प्यार कर लेना। उससे कह देना कि पेट से बचा सकूँगा, तो एक रेलगाड़ी भेज दूँगा। यद्यपि अपनी यात्रा का समाचार बराबर

  • जयशंकर प्रसाद की लिखी कहानी कला, Kala - Story Written By Jaishankar Prasad

    12/03/2019 Duration: 08min

    उसके पिता ने बड़े दुलार से उसका नाम रक्खा था-‘कला’। नवीन इन्दुकला-सी वह आलोकमयी और आँखों की प्यास बुझानेवाली थी। विद्यालय में सबकी दृष्टि उस सरल-बालिका की ओर घूम जाती थी; परन्तु रूपनाथ और रसदेव उसके विशेष भक्त थे। कला भी कभी-कभी उन्हीं दोनों से बोलती थी, अन्यथा वह एक सुन्दर नीरवता ही बनी रहती। तीनों एक-दूसरे से प्रेम करते थे, फिर भी उनमें डाह थी। वे एक-दूसरे को अधिकाधिक अपनी ओर आकर्षित देखना चाहते थे। छात्रावास में और बालकों से उनका सौहार्द नहीं। दूसरे बालक और बालिकायें आपस में इन तीनों की चर्चा करतीं। कोई कहता-‘‘कला तो इधर आँख उठाकर देखती भी नहीं।’’ दूसरा कहता-‘‘रूपनाथ सुन्दर तो है, किन्तु बड़ा कठोर।’’ तीसरा कहता-‘‘रसदेव पागल है। उसके भीतर न जाने कितनी हलचल है। उसकी आँखों में निश्छल अनुराग है; पर कला को जैसे सबसे अधिक प्यार करता है।’’ उन तीनों को इधर ध्यान देने का अवकाश नहीं। वे छात्रावास की फुलवारी में, अपनी धुन में मस्त विचरते थे। सामने गुलाब के फूल पर एक नीली तितली बैठी थी। कला उधर देखकर गुनगुना रही थी। उसकी सजन स्वर-लहरी अवगुण्ठित हो रही थी। पतले-पतले अधरों से बना हुआ छोटे-से मुँह का अवगुण्ठन उसे ढँ

  • 43: जयशंकर प्रसाद की लिखी अमिट स्मृति Amit Smriti - Story Written By Jaishankar Prasad

    28/02/2019 Duration: 09min

    फाल्गुनी पूर्णिमा का चन्द्र गंगा के शुभ्र वक्ष पर आलोक-धारा का सृजन कर रहा था। एक छोटा-सा बजरा वसन्त-पवन में आन्दोलित होता हुआ धीरे-धीरे बह रहा था। नगर का आनन्द-कोलाहल सैकड़ों गलियों को पार करके गंगा के मुक्त वातावरण में सुनाई पड़ रहा था। मनोहरदास हाथ-मुँह धोकर तकिये के सहारे बैठ चुके थे। गोपाल ने ब्यालू करके उठते हुए पूछा- बाबूजी, सितार ले आऊँ? आज और कल, दो दिन नहीं। -मनोहरदास ने कहा। वाह! बाबूजी, आज सितार न बजा तो फिर बात क्या रही! नहीं गोपाल, मैं होली के इन दो दिनों में न तो सितार ही बजाता हूँ और न तो नगर में ही जाता हूँ। तो क्या आप चलेंगे भी नहीं, त्योहार के दिन नाव पर ही बीतेंगे, यह तो बड़ी बुरी बात है। यद्यपि गोपाल बरस-बरस का त्योहार मनाने के लिए साधारणत: युवकों की तरह उत्कण्ठित था; परन्तु सत्तर बरस के बूढ़े मनोहरदास को स्वयं बूढ़ा कहने का साहस नहीं रखता। मनोहरदास का भरा हुआ मुँह, दृढ़ अवयव और बलिष्ठ अंग-विन्यास गोपाल के यौवन से अधिक पूर्ण था। मनोहरदास ने कहा- गोपाल! मैं गन्दी गालियों या रंग से भगता हूँ। इतनी ही बात नहीं, इसमें और भी कुछ है। होली इसी तरह बिताते मुझे पचास बरस हो गये। गोपाल ने नगर

  • 39: प्रेमचंद की कहानी "बड़े बाबू" Premchand Story "Bade Babu"

    27/02/2019 Duration: 26min

    तीन सौ पैंसठ दिन, कई घण्टे और कई मिनट की लगातार और अनथक दौड़-धूप के बाद मैं आखिर अपनी मंजिल पर धड़ से पहुँच गया। बड़े बाबू के दर्शन हो गए। मिट्टी के गोले ने आग के गोले का चक्कर पूरा कर लिया। अब तो आप भी मेरी भूगोल की लियाकत के कायल हो गए। इसे रुपक न समझिएगा। बड़े बाबू में दोपहर के सूरज की गर्मी और रोशनी थी और मैं क्या और मेरी बिसात क्या, एक मुठ्ठी खाक। बड़े बाबू मुझे देखकर मुस्कराये। हाय, यह बड़े लोगों की मुस्कराहट, मेरा अधमरा-सा शरीर कांपते लगा। जी में आया बड़े बाबू के कदमों पर बिछ जाऊँ। मैं काफिर नहीं, गालिब का मुरीद नहीं, जन्नत के होने पर मुझे पूरा यकीन है, उतरा ही पूरा जितना अपने अंधेरे घर पर। लेकिन फरिश्ते मुझे जन्नत ले जाने के लिए आए तो भी यकीनन मुझे वह जबरदस्त खुशी न होती जो इस चमकती हुई मुस्कराहट से हुई। आंखों में सरसों फूल गई। सारा दिल और दिमाग एक बगीचा बन गया। कल्पना ने मिस्र के ऊंचे महल बनाने शुरु कर दिय। सामने कुर्सियों, पर्दो और खस की टट्टियों से सजा-सजाया कमरा था। दरवाजे पर उम्मीदवारों की भीड़ लगी हुई थी और ईजानिब एक कुर्सी पर शान से बैठे हुए सबको उसका हिस्सा देने वाले खुदा के दुनियाबी फ़र्ज अदा

  • 44: जयशंकर प्रसाद की लिखी अपराधी, Apradhi - Story Written By Jaishankar Prasad

    26/02/2019 Duration: 09min

    वनस्थली के रंगीन संसार में अरुण किरणों ने इठलाते हुए पदार्पण किया और वे चमक उठीं, देखा तो कोमल किसलय और कुसुमों की पंखुरियाँ, बसन्त-पवन के पैरों के समान हिल रही थीं। पीले पराग का अंगराग लगने से किरणें पीली पड़ गई। बसन्त का प्रभात था। युवती कामिनी मालिन का काम करती थी। उसे और कोई न था। वह इस कुसुम-कानन से फूल चुन ले जाती और माला बनाकर बेचती। कभी-कभी उसे उपवास भी करना पड़ता। पर, वह यह काम न छोड़ती। आज भी वह फूले हुए कचनार के नीचे बैठी हुई, अर्द्ध-विकसित कामिनी-कुसुमों को बिना बेधे हुए, फन्दे देकर माला बना रही थी। भँवर आये, गुनगुनाकर चले गये। बसन्त के दूतों का सन्देश उसने न सुना। मलय-पवन अञ्चल उड़ाकर, रूखी लटों को बिखराकर, हट गया। मालिन बेसुध थी, वह फन्दा बनाती जाती थी और फूलों को फँसाती जाती थी। द्रुत-गति से दौड़ते हुए अश्व के पद-शब्द ने उसे त्रस्त कर दिया। वह अपनी फूलों की टोकरी उठाकर भयभीत होकर सिर झुकाये खड़ी हो गई। राजकुमार आज अचानक उधर वायु-सेवन के लिये आ गये थे। उन्होंने दूर ही से देखा, समझ गये कि वह युवती त्रस्त है। बलवान अश्व वहीं रुक गया। राजकुमार ने पूछा-''तुम कौन हो?'' कुरंगी कुमारी के समान बड़ी-ब

  • 38: प्रेमचंद की कहानी "पागल हाथी" Premchand Story "Paagal Haathi"

    25/02/2019 Duration: 05min

    मोती राजा साहब की खास सवारी का हाथी। यों तो वह बहुत सीधा और समझदार था, पर कभी-कभी उसका मिजाज गर्म हो जाता था और वह आपे में न रहता था। उस हालत में उसे किसी बात की सुधि न रहती थी, महावत का दबाव भी न मानता था। एक बार इसी पागलपन में उसने अपने महावत को मार डाला। राजा साहब ने वह खबर सुनी तो उन्हें बहुत क्रोध आया। मोती की पदवी छिन गयी। राजा साहब की सवारी से निकाल दिया गया। कुलियों की तरह उसे लकड़ियां ढोनी पड़तीं, पत्थर लादने पड़ते और शाम को वह पीपल के नीचे मोटी जंजीरों से बांध दिया जाता। रातिब बंद हो गया। उसके सामने सूखी टहनियां डाल दी जाती थीं और उन्हीं को चबाकर वह भूख की आग बुझाता। जब वह अपनी इस दशा को अपनी पहली दशा से मिलाता तो वह बहुत चंचल हो जाता। वह सोचता, कहां मैं राजा का सबसे प्यारा हाथी था और कहां आज मामूली मजदूर हूं। यह सोचकर जोर-जोर से चिंघाड़ता और उछलता। आखिर एक दिन उसे इतना जोश आया कि उसने लोहे की जंजीरें तोड़ डालीं और जंगल की तरफ भागा। थोड़ी ही दूर पर एक नदी थी। मोती पहले उस नदी में जाकर खूब नहाया। तब वहां से जंगल की ओर चला। इधर राजा साहब के आदमी उसे पकड़ने के लिए दौड़े, मगर मारे डर के कोई उसके पास जा

  • 42: जयशंकर प्रसाद की लिखी कहानी बंजारा, Banjara - Story Written By Jaishankar Prasad

    24/02/2019 Duration: 07min

    धीरे-धीरे रात खिसक चली, प्रभात के फूलों के तारे चू पडऩा चाहते थे। विन्ध्य की शैलमाला में गिरि-पथ पर एक झुण्ड बैलों का बोझ लादे आता था। साथ के बनजारे उनके गले की घण्टियों के मधुर स्वर में अपने ग्रामगीतों का आलाप मिला रहे थे। शरद ऋतु की ठण्ड से भरा हुआ पवन उस दीर्घ पथ पर किसी को खोजता हुआ दौड़ रहा था। वे बनजारे थे। उनका काम था सरगुजा तक के जंगलों में जाकर व्यापार की वस्तु क्रय-विक्रय करना। प्राय: बरसात छोड़कर वे आठ महीनें यही उद्यम करते। उस परिचित पथ में चलते हुए वे अपने परिचित गीतों को कितनी ही बार उन पहाड़ी चट्टानों से टकरा चुके थे। उन गीतों में आशा, उपालम्भ, वेदना और स्मृतियों की कचोट, ठेस और उदासी भरी रहती। सबसे पीछेवाले युवक ने अभी अपने आलाप को आकाश में फैलाया था; उसके गीत का अर्थ था- ''मैं बार-बार लाभ की आशा से लादने जाता हूँ; परन्तु है उस जंगल की हरियाली में अपने यौवन को छिपानेवाली कोलकुमारी, तुम्हारी वस्तु बड़ी महँगी है! मेरी सब पूँजी भी उसको क्रय करने के लिए पर्याप्त नहीं। पूँजी बढ़ाने के लिए व्यापार करता हूँ; एक दिन धनी होकर आऊँगा; परन्तु विश्वास है कि तब भी तुम्हारे सामने रंक ही रह जाऊँगा!'' आलाप

  • 37: प्रेमचंद की कहानी "नादान दोस्त" Premchand Story "Nadan Dost"

    23/02/2019 Duration: 10min

    केशव के घर में कार्निस के ऊपर एक चिड़िया ने अण्डे दिए थे। केशव और उसकी बहन श्यामा दोनों बड़े ध्यान से चिड़ियों को वहां आते-जाते देखा करते । सवेरे दोनों आंखें मलते कार्निस के सामने पहुँच जाते और चिड़ा या चिड़िया दोनों को वहां बैठा पाते। उनको देखने में दोनों बच्चों को न मालूम क्या मजा मिलता, दूध और जलेबी की भी सुध न रहती थी। दोनों के दिल में तरह-तरह के सवाल उठते। अण्डे कितने बड़े होंगे ? किस रंग के होंगे ? कितने होंगे ? क्या खाते होंगे ? उनमें बच्चे किस तरह निकल आयेंगे ? बच्चों के पर कैसे निकलेंगे ? घोंसला कैसा है? लेकिन इन बातों का जवाब देने वाला कोई नहीं। न अम्मां को घर के काम-धंधों से फुर्सत थी न बाबूजी को पढ़ने-लिखने से । दोनों बच्चे आपस ही में सवाल-जवाब करके अपने दिल को तसल्ली दे लिया करते थे। श्यामा कहती - क्यों भइया, बच्चे निकलकर फुर से उड़ जायेंगे ? केशव विद्वानों जैसे गर्व से कहता - नहीं री पगली, पहले पर निकलेंगे। बगैर परों के बेचारे कैसे उड़ेगे ? श्यामा - बच्चों को क्या खिलायेगी बेचारी ? केशव इस पेचीदा सवाल का जवाब कुछ न दे सकता था। इस तरह तीन-चान दिन गुजर गए। दोनों बच्चों की जिज्ञासा दिन-दिन बढ

  • 41: जयशंकर प्रसाद की लिखी कहानी प्रतिध्वनि, Pratidhwani - Story Written By Jaishankar Prasad

    22/02/2019 Duration: 09min

    मनुष्य की चिता जल जाती है, और बुझ भी जाती है परन्तु उसकी छाती की जलन, द्वेष की ज्वाला, सम्भव है, उसके बाद भी धक्-धक करती हुई जला करे। तारा जिस दिन विधवा हुई, जिस समय सब लोग रो-पीट रहे थे, उसकी ननद ने, भाई के मरने पर भी, रोदन के साथ, व्यंग स्वर में कहा-‘‘अरे मैया रे, किसका पाप किसे खा गया रे!’’- तभी आसन्न वैधव्य ठेलकर, अपने कानों को ऊँचा करके, तारा ने वह तीक्ष्ण व्यंग रोदन के कोलाहल में भी सुन लिया था। तारा सम्पन्न थी, इसलिए वैधव्य उसे दूर ही से डराकर चला जाता। उसका पूर्ण अनुभव वह कभी न कर सकी। हाँ, ननद रामा अपनी दरिद्रता के दिन अपनी कन्या श्यामा के साथ किसी तरह काटने लगी। दहेज मिलने की निराशा से कोई ब्याह करने के लिए प्रस्तुत न होता। श्यामा चौदह बरस की हो चली। बहुत चेष्टा करके भी रामा उसका ब्याह न कर सकी। वह चल बसी। श्यामा निस्सहाय अकेली हो गई। पर जीवन के जितने दिन हैं , वे कारावासी के समान काटने ही होंगे। वह अकेली ही गंगा-तट पर अपनी बारी से सटे हुए कच्चे झोपड़े में रहने लगी। मन्नी नाम की एक बुढिय़ा, जिसे ‘दादी’ कहती थी, रात को उसके पास सो रहती, और न जाने कहाँ से, कैसे उसके खाने-पीने का कुछ प्रबन्ध कर ही

  • 36: प्रेमचंद की कहानी "खुदी" Premchand Story "Khudi"

    21/02/2019 Duration: 11min

    मुन्नी जिस वक्त दिलदारनगर में आयी, उसकी उम्र पांच साल से ज्यादा न थी। वह बिलकुल अकेली न थी, माँ-बाप दोनों न मालूम मर गये या कहीं परदेस चले गये थे। मुत्री सिर्फ इतना जानती थी कि कभी एक देवी उसे खिलाया करती थी और एक देवता उसे कंधे पर लेकर खेतों की सैर कराया करता था। पर वह इन बातों का जिक्र कुछ इस तरह करती थी कि जैसे उसने सपना देखा हो। सपना था या सच्ची घटना, इसका उसे ज्ञान न था। जब कोई पूछता तेरे मॉँ-बाप कहां गये ? तो वह बेचारी कोई जवाब देने के बजाय रोने लगती और यों ही उन सवालों को टालने के लिए एक तरफ हाथ उठाकर कहती—ऊपर। कभी आसमान की तरफ़ देखकर कहती—वहां। इस ‘ऊपर’ और ‘वहां’ से उसका क्या मतलब था यह किसी को मालूम न होता। शायद मुन्नी को यह खुद भी मालूम न था। बस, एक दिन लोगों ने उसे एक पेड़ के नीचे खेलते देखा और इससे ज्यादा उसकी बाबत किसी को कुछ पता न था।  लड़की की सूरत बहुत प्यारी थी। जो उसे देखता, मोह जाता। उसे खाने-पीने की कुछ फ़िक्र न रहती। जो कोई बुलाकर कुछ दे देता, वही खा लेती और फिर खेलने लगती। शक्ल-सूरज से वह किसी अच्छे घर की लड़की मालूम होती थी। ग़रीब-से-ग़रीब घर में भी उसके खाने को दो कौर और सोने को एक टा

  • 40: जयशंकर प्रसाद की लिखी कहानी ममता, Mamta - Story Written By Jaishankar Prasad

    20/02/2019 Duration: 09min

    रोहतास-दुर्ग के प्रकोष्ठ में बैठी हुई युवती ममता, शोण के तीक्ष्ण गम्भीर प्रवाह को देख रही है। ममता विधवा थी। उसका यौवन शोण के समान ही उमड़ रहा था। मन में वेदना, मस्तक में आँधी, आँखों में पानी की बरसात लिये, वह सुख के कण्टक-शयन में विकल थी। वह रोहतास-दुर्गपति के मंत्री चूड़ामणि की अकेली दुहिता थी, फिर उसके लिए कुछ अभाव होना असम्भव था, परन्तु वह विधवा थी-हिन्दू-विधवा संसार में सबसे तुच्छ निराश्रय प्राणी है-तब उसकी विडम्बना का कहाँ अन्त था? चूड़ामणि ने चुपचाप उसके प्रकोष्ठ में प्रवेश किया। शोण के प्रवाह में, उसके कल-नाद में अपना जीवन मिलाने में वह बेसुध थी। पिता का आना न जान सकी। चूड़ामणि व्यथित हो उठे। स्नेह-पालिता पुत्री के लिए क्या करें, यह स्थिर न कर सकते थे। लौटकर बाहर चले गये। ऐसा प्राय: होता, पर आज मंत्री के मन में बड़ी दुश्चिन्ता थी। पैर सीधे न पड़ते थे। एक पहर बीत जाने पर वे फिर ममता के पास आये। उस समय उनके पीछे दस सेवक चाँदी के बड़े थालों में कुछ लिये हुए खड़े थे; कितने ही मनुष्यों के पद-शब्द सुन ममता ने घूम कर देखा। मंत्री ने सब थालों को रखने का संकेत किया। अनुचर थाल रखकर चले गये। ममता ने पूछा-''यह

  • 35: प्रेमचंद की कहानी "मुबारक़ बीमारी" Premchand Story "Mubaraq Beemari"

    19/02/2019 Duration: 18min

    रात के नौ बज गये थे, एक युवती अंगीठी के सामने बैठी हुई आग फूंकती थी और उसके गाल आग के कुन्दनी रंग में दहक रहे थ। उसकी बड़ी-बड़ी आंखें दरवाजे की तरफ़ लगी हुई थीं। कभी चौंककर आंगन की तरफ़ ताकती, कभी कमरे की तरफ़। फिर आनेवालों की इस देरी से त्योरियों पर बल पड़ जाते और आंखों में हलका-सा गुस्सा नजर आता। कमल पानी में झकोले खाने लगता। इसी बीच आनेवालों की आहट मिली। कहर बाहर पड़ा खर्राटे ले रहा था। बूढ़े लाला हरनामदास ने आते ही उसे एक ठोकर लगाकर कहा-कम्बख्त, अभी शाम हुई है और अभी से लम्बी तान दी! नौजवान लाला हरिदास घर मे दाखिल हुए—चेहरा बुझा हुआ, चिन्तित। देवकी ने आकर उनका हाथ पकड़ लिया और गुस्से व प्यार की मिली ही हुई आवाज में बोली—आज इतनी देर क्यों हुई? दोनों नये खिले हुए फूल थे—एक पर ओस की ताज़गी थी, दूसरा धूप से मुरझाया हुआ। हरिदास—हां, आज देर हो गयी, तुम यहां क्यों बैठी रहीं? देवकी—क्या करती, आग बुझी जाती थी, खाना न ठन्डा हो जाता। हरिदास—तुम ज़रा-से-काम के लिए इतनी आग के सामने न बैठा करो। बाज आया गरम खाने से। देवकी—अच्छा, कपड़े तो उतारो, आज इतनी देर क्यों की? हरिदास—क्या बताऊँ, पिताजी ने ऐसा नाक में दम कर

  • 28: जयशंकर प्रसाद की लिखी कहानी भिखारिन, Bhikhaarin - Story Written By Jaishankar Prasad

    18/02/2019 Duration: 05min

    जाह्नवी अपने बालू के कम्बल में ठिठुरकर सो रही थी। शीत कुहासा बनकर प्रत्यक्ष हो रहा था। दो-चार लाल धारायें प्राची के क्षितिज में बहना चाहती थीं। धार्मिक लोग स्नान करने के लिए आने लगे थे। निर्मल की माँ स्नान कर रही थी, और वह पण्डे के पास बैठा हुआ बड़े कुतूहल से धर्म-भीरु लोगों की स्नान-क्रिया देखकर मुस्करा रहा था। उसकी माँ स्नान करके ऊपर आई। अपनी चादर ओढ़ते हुए स्नेह से उसने निर्मल से पूछा-‘‘क्या तू स्नान न करेगा?’’ निर्मल ने कहा-‘‘नहीं माँ, मैं तो धूप निकलने पर घर पर ही स्नान करूँगा।’’ पण्डाजी ने हँसते हुए कहा-‘‘माता, अबके लड़के पुण्य-धर्म क्या जानें? यह सब तो जब तक आप लोग हैं, तभी तक है।’’ निर्मल का मुँह लाल हो गया। फिर भी वह चुप रहा। उसकी माँ संकल्प लेकर कुछ दान करने लगी। सहसा जैसे उजाला हो गया-एक धवल दाँतों की श्रेणी अपना भोलापन बिखेर गई- ‘‘कुछ हमको दे दो, रानी माँ!’’ निर्मल ने देखा, एक चौदह बरस की भिखारिन भीख माँग रही है। पण्डाजी झल्लाये, बीच ही में संकल्प अधूरा छोड़कर बोल उठे-‘‘चल हट!’’ निर्मल ने कहा- ‘‘माँ! कुछ इसे भी दे दो।’’ माता ने उधर देखा भी नहीं, परन्तु निर्मल ने उस जीर्ण मलिन वसन में एक दरि

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